सिटी संवाददाता : प्रो० रामजीवन साहू
जमुई : 449 वर्षो के बीत जाने के बाद भी भारत का एक वर्ग जिन्हें खानाबदोश कहा जाता है। वे आज भी सड़क के किनारे छोटे से तंबू रहते हैं। भारत के स्वाभिमान वीर महाराणा प्रताप को अकबर ने जब यह प्रस्ताव भेजा कि अगर आप हमारी अधीनता स्वीकार कर लेते हैं, तो आपकी सत्ता अक्षुण्ण रह जायगी। इसका वे उत्तर भेजवाये कि मुझमें सनातन धर्म का संस्कार कूट-कूट कर भरा हुआ है।
इसलिए मैं घास की रोटी खाना, जमीन पर सोना और जंगल में खुले आकाश में रहना पसंद करूंगा, परन्तु आपकी कोई भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करूंगा। फलस्वरूप वे जंगल में रहने लगे। इनकी बहादुर और वफादार सैनिक भी जंगल में ही रहने लगे।
जंगल में कहीं स्थायी रूप से नहीं रहते थे। जहाँ फल पेड़ों पर मिल जाते, वहां पर वे लोग रह जाते थे। जब फल नहीं मिलते तब घास की रोटी खाते थे। महाराणा प्रताप भी घास की रोटी खाते थे। भोजन के तलाश में वे लोग अलग - अलग हो गये।
राष्ट्रभक्त सेठ भामाशाह को जब इस घटना की जानकारी हुई, तो उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति स्व की प्रेरणा से महाराणा प्रताप को सौंप दिये। महाराणा प्रताप पुनः सैनिकों का गठन किये और अकबर के साथ घमासान युद्ध किये और बिजय प्राप्त किये और खोया हुआ राजपाट पुनः वापस हो गया।
उनके साथ जो सैनिक जंगल आ गये थे, उनको यह पता नहीं चला कि महाराणा प्रताप पुनः राजपाट को प्राप्त कर लिए। जिसके कारण वे लोग घूम-घूम कर रहना आज भी पसंद करते हैं। ठंढ और बरसात में भी सड़क के किनारे छोटा सा तंबू में आनन्द के साथ रहते हैं।
राजस्थान सरकार बहुत प्रयास किया, उन्हें बसाने के लिए, परन्तु वे तैयार नहीं हुए। धन्य हैं ये भारत माता के सपूत। इन स्वाभिमानी राष्ट्रभक्त को कोटि-कोटि प्रणाम।
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